नीलकंठ महादेव मंदिर

Sep 14, 2024
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जानकारी

वैसे तो उत्तराखंड में भगवान शिव के कई मंदिर स्थापित है जिनकी विशेष मान्यता है लेकिन उन सबसे भिन्न है पौड़ी गढ़वाल स्थित 'नीलकंठ महादेव मंदिर'। ऋषिकेश से लगभग 30 किमी की दूरी पर स्थित यह मंदिर सर्पित है भगवान शिव के एक रूप जिसे 'नीलकंठ' कहा जाता है। प्रकृति की गोद में स्थित यह मंदिर तीन घाटी मणिकूट, ब्रह्मकूट, और विष्णुकूट से घिरा हुआ है, जो की दो प्रमुख नदिया 'मधुमती' और 'पंकजा' के मध्य स्थित है।

करीब 4,000 फ़ीट की ऊंचाई पर निर्मित यह मंदिर घने जंगलो से घिरा हुआ है, जहाँ से प्रकृति के अद्भुत नज़ारे देखने को मिलते है। कहते है की सच्चे मन से मांगी गई सभी मनोकामना नीलकंठ महादेव द्वारा पूर्ण की जाती है। इसी आस में हजारो की संख्या में श्रद्धालु मंदिर में दूर-दूर से भोलेनाथ के दर्शन करने आते है, विशेषकर शिवरात्रि के समय। भक्तो द्वारा शिवलिंग में बेल पत्र, शहद, दही, गंगा जल, फूल और नारियल चढ़ाकर आशीर्वाद माँगा जाता है। द्रविड़ियन हस्तकला को दर्शाती मंदिर की ईमारत बेहद ही दर्शनीय और मंत्रमुग्ध करने वाली है।

पौराणिक मान्यता को संजोये इस मंदिर की छवि आपको इसके प्रवेश द्वार पर दिखाई देगी, जहाँ समुद्रमंथन की प्रक्रिया दर्शयी गई है। सावन के पवित्र महीने में मंदिर में लाखो की संख्या में श्रद्धालु कांवड़ लेकर आते है, जिसमे हरिद्वार से भरे गंगा जल से उनके द्वारा शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है। साथ ही मंदिर में भक्तो द्वारा शिवरात्रि का पर्व भी बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है, जिसमे काफी संख्या में लोग शामिल होते है।

पारौणिक कथा के अनुसार देव और दानवो के बीच अमृत की उत्पत्ति के लिए समुद्रमंथन को लेकर सहमति बनी। कहा जाता है की समुद्रमंथन के दौरान 14 रतन की उत्पत्ति के साथ कलकूट नामक विष की भी उत्पत्ति हुई। कहते है इस कलकूट नामक विष से सम्पूर्ण विश्व का खात्मा हो सकता था। समुद्रमंथन के नियमो के अनुसार किसी भी वस्तु के उत्पन्न होने पर उसे देव या फिर दानव द्वारा बारी बारी पर रखा जाना तय था, लेकिन इस विष के उत्पन्न होने पर दोनों देव और दानवो ने इसे स्वीकारने से मना कर दिया।

विश्व को इस विष के प्रभाव से बचाने के लिए शिव ने इस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, जिससे शिव का कंठ नीला प्रतीति पड़ गया और इसके पश्चात से उन्हें नीलकंठ के नाम से पहचाने जाने लगा। इस विष के दुष प्रभावों को खत्म करने हेतु शिव ने पंचपनी वृक्ष (जो की आग के समय में मंदिर का गर्भ ग्रह वाला स्थान है) के नीचे कई हजार वर्षो तक कठोर तपस्या की। तपस्या पूर्ण होने के पश्चात शिव द्वारा वृक्ष के नीचे गले की आकृति वाले शिवलिंग को स्थापित किया गया।

श्रद्धालुओं द्वारा मंदिर स्थित शिवलिंग का अभिषेक किये जाने के पश्चात मंदिर प्रांगढ़ में स्थित पीपल के पेड़ पर धागा बांधकर भोलेनाथ से मनोकामना मांगी जाती है। सड़क मार्ग से भलीभांति जुड़े मंदिर में भक्त बस, कार और टैक्सी के माध्यम से आ सकते है। हालाँकि दुर्गम मार्ग के चलते भक्तो को यात्रा के दौरान विशेष ध्यान रखना आवश्यक है विशेषकर बरसात के समय। इसके अलावा मंदिर में भक्त पैदल मार्ग से भी आ सकते है।

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