उत्तराखंड वैसे तो अपने प्राचीन मंदिर और धार्मिक स्थल के लिए प्रख्यात है, जहाँ प्रत्येक वर्ष लाखो की संख्या में श्रद्धालु आते है। धार्मिक छवि के विपरीत उत्तराखंड अपने अन्य पर्यटक स्थल के लिए भी जाना जाता है, जहाँ पर्यटक दूर दूर से घूमने के लिए आते है। उन्ही पर्यटक स्थलों में से एक ऐसा पर्यटक स्थल भी है जो देश से ही नहीं बल्कि विदेश से भी पर्यटकों को आकर्षित करता है। वर्ष 2002 में विश्व धरोहर की ख्याति प्राप्त इस पर्यटक स्थल को "फूलो की घाटी" के नाम से जाना जाता है।
करीब 87 वर्ग किमी में फैली यह घाटी उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित है, जिसकी दूरी देहरादून से लगभग 301 किमी की है। भारत सरकार द्वारा वर्ष 1982 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित इस फूलो की घाटी में आपको विभिन्न प्रजाति की वनस्पति और जीव जंतु देखने को मिलेंगे। यहाँ पाए जानी वाली कई वनस्पति और जीवो की प्रजातिया अपनी विलुप्ति की कगार पर खड़ी है। घाटी की सुंदरता और खूबसूरती देखते ही बनती है, जहाँ से आप दूर तक फैले हिमालय के पहाड़ और हरे भरे जंगल के अद्भुत नजारो का लुत्फ़ उठा सकते है। घाटी से होकर बहने वाली पुष्पावती नदी प्रमुख है, जिसकी खोज कर्नल एडमंड स्मिथ द्वारा की गई थी जो घाटी के ट्रेक मार्ग को कई स्थानों से विभाजित करती है।
कहते है की फूलो की घाटी की खोज तीन ब्रिटिश पर्वतारोहियों द्वारा संयोग से हुई थी। वर्ष 1931 में जब यह तीनो पर्वतारोही अपनी कोमेट पर्वत की यात्रा से वापस लौट रहे थे, तो रास्ता भटकने की वजह से वह इस घाटी में आ पहुंचे। इस घाटी में तरह-तरह के फूलो को देखकर तीनो बेहद ही आश्चर्यचकित हो गए थे। इसकी सुंदरता और इतनी संख्या में फूलो को देखकर उन्होंने इस स्थान का नाम फूलो की घाटी रखा था। इतना ही नहीं उन पर्वतारोही में से एक ने आगे चलकर इस घाटी के नाम पर एक किताब भी लिखी थी।
इतनी संख्या में वनस्पति और जीवो की प्रजाति के चलते वर्ष 2002 में "संयुक्त राष्ट शैक्षिक वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन" द्वारा इस स्थान को विश्व धरोहर घोषित किया गया। फूलो की घाटी में देश विदेश से कई पर्यटक इसकी सुंदरता को निहारने के लिए आते है। प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर माह के बीच इस घाटी को पर्यटकों के लिए खोला जाता है, यह समय अधिकतर पौधो के खिलने का समय होता है। वन अनुसन्धान संस्था द्वारा साल 1992 में की गई खोज में यहाँ 600 से भी अधिक वनस्पति की प्रजाति पायी गई, जिनमे से एस्टरेसिया नमक पौधे की करीब 62 से भी अधिक प्रजाति यहाँ मौजूद है।
विभिन्न प्रजाति के फूलो के मध्य यहाँ कई औषधीय गुणों से भरपूर पौधे भी है, जिनका उपयोग स्थानीय निवासी विभिन्न बीमारी के दौरान इस्तेमाल में लाते है। वैसे तो इस घाटी में कई फूलो की प्रजाति है लेकिन उनमे से राजकीय पुष्प से सम्मानित ब्रह्मकमल सर्वोपरि है। इस फूल का उपयोग अधिकतर धार्मिक स्थल और ग्राम निवासियों द्वारा नंदा और सुनंदा देवी पर चढाने के लिए किया जाता है।
विभिन्न प्रजाति के फूलो के साथ फूलो की घाटी में आपको कई तरह के वन्य जीव भी देखने को मिलेंगे, जिनमे ग्रे लंगूर, उड़ने वाली गिलहरी, काला भालू, लाल लोमड़ी, हिम तेंदुआ, हिमालयी मोनाल प्रजाति प्रमुख है। हालाँकि, ऐसे जानवरों का घनत्व अधिक नहीं है और 2004 से पहले, घाटी में स्तनधारियों की 13 प्रजातियाँ दर्ज की गई थीं। विश्व धरोहर और वन जीव के चलते पर्यटकों को घाटी में कैंपिंग करने की इजाजत नहीं दी जाती है, जिसके चलते उन्हें श्याम होने से पहले वापस अपने बेस कैंप में पहुंचना होता है।
वर्ष 1931 में प्रख्यात वनस्पति-विज्ञानिक जोन मार्गरेट लेग इस घाटी में फूलो के बारे में अनुसंधान करने हेतु पधारी थी, इस दौरान पैर फिसलकर निचे गिरने से उनकी मृत्यु इस स्थान पर हुई थी। बाद में उनकी बहन द्वारा उस स्थान की निकट ही उनकी याद में एक कब्र बनाई गई। सड़क मार्ग से जुड़े इस उद्यान में पर्यटक बस, टैक्सी की सहायता से आ सकते है, जिसकी सुविधा राज्य के प्रमुख बस और टैक्सी स्टैंड से मिल जाएगी। घाटी तक पहुँचने के लिए, पर्यटकों को गोविंदघाट से घांघरिया तक 13 किमी की दूरी तय करनी होगी इसके बाद घांघरिया से फूलों की घाटी तक 4 किमी की पैदल यात्रा है। घांघरिया इस घाटी का अंतिम गांव और यात्रा का बेस कैंप भी माना जाता है।