उत्तराखण्ड का एक ऐसा मंदिर जहाँ पर आपको देखने को मिलेगी भाई बहन की बनी प्रतिमा जिसकी आज भी पूजा-अर्चना की जाती है माँ भगवती की है मंदिर में पहुंचने के लिए पहले आपको 1.5 किलो मीटर का ट्रेक करके जाना पड़ता है और रास्ते में चलते आपको दिखाई देते है खूबसूरत पहाड़ और चारो तरफ हरियाली ही हरियाली व् प्रकृति का विहंगम अद्भुत नज़ारा जो आपकी इस यात्रा को और भी सुकून भरी बना देता है ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का निर्माण तक़रीबन 11वी शताब्दी में
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उत्तराखण्ड का एक ऐसा मंदिर जहाँ पर आपको देखने को मिलेगी भाई बहन की बनी प्रतिमा जिसकी आज भी पूजा-अर्चना की जाती है माँ भगवती की है मंदिर में पहुंचने के लिए पहले आपको 1.5 किलो मीटर का ट्रेक करके जाना पड़ता है और रास्ते में चलते आपको दिखाई देते है खूबसूरत पहाड़ और चारो तरफ हरियाली ही हरियाली व् प्रकृति का विहंगम अद्भुत नज़ारा जो आपकी इस यात्रा को और भी सुकून भरी बना देता है ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का निर्माण तक़रीबन 11वी शताब्दी में हुआ। मंदिर का मुख्य मार्ग सड़क से जुड़ा हुआ, जहाँ आप कार, बस, या रिक्शा के माधयम से पहुँच सकते है। हालांकि चढाई थोड़ी कठिन है,ऐसा माना जाता है की 11वी शताब्दी के दौरान नेपाल के राजा की पुत्री सन्तला अपने भाई के साथ उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में आकर रेहनी लगी अपनी सेना व्
भाई के साथ उस दौरान मुगल शासक हुआ करता था और बादशाह औरंगजेब था औरंगजेब को माता संतुला के बारे में मालूमात हुई की पहाडिओं के ऊपर एक सूंदर कन्या रहती है उसके पश्चात औरंगजेब ने शादी का प्रस्ताव भेजा और संतुला देवी ने साफ साफ इनकार कर दिया जिससे पश्चात बादशाह गुस्सा हुआ और युद्ध की की घोसणा की और मुग़ल सेना दिल्ली से चलकर पहला डेरा बाशस्याही बाघ में डेरा डाला सहरानपुर मार्ग पर बाशस्याही से आगे चलकर जहाँ माता संतुला देवी रहती थी उसके ठीक निचे मुग़ल सेना डेरा डाला जिसके पश्चात माता को पता लग गया था मुग़ल सेना कुछ दिनों तक ऊपर जाने का रास्ता नहीं मिला क्योंकि उस दौरान गुत्प मार्ग हुआ करते थे और उस गुप्त मार्ग का पहरा माता संतुला का भाई करता था एक दिन मुग़ल सेनिको को चोटी पर जाते वक्त कुछ हलचल नज़र आई और उन्होंने
काफी समय के बाद उनके भाई को अपने कब्जे में लिया और उनको बंधी बना कर सीढी नुमा रास्तो से ऊपर लेकर आये फिर आक्रमण शुरू हो जाता है और मुग़ल सैनीको का माता ने संघार कर दिया जैसे जैसे और सैनिक आते रहे और उनका सबकाऔर माता भगवती ने संघार किया संतुला माता ने देखा यह युद्ध तो रुकने वाला नहीं है और बहुत ज्यादा संघार हो रहा है तब माता भगवती ने यहाँ पर पदमा आसन लगा दिया जिस कारण एक दिव्य शक्ति प्रकट हुई जिसमे माता और उनका भाई एक दिव्य मूर्ति प्रतिमा का आकार ले लिया था जो दिव्य शक्ति प्रकट हुई उसकी रौशनी इतनी थी जिससे मुग़ल के सारे सैनिको को आँखों की रौशनी चली गई जिसमे सभी सैनिक पहाड़ की चोटी से इधर-उधर गीर कर मृत्यु हो गई थी उसी दौरान माता भगवती एक पत्थर की शिला पे पदमा आसन पर उसके पश्चात माता ने एक
पण्डित पाती राम को यह घटना बताई फिर यहाँ पर पण्डित जी द्वारा पूजा-अर्चना की तब से लेकर आज भी यहाँ हर रोज पूजा अर्चना की जाती है और पूजा रोज सुभह 5 बजे होती है और मंदिर शाम को 6 बजे बंद हो जाता है और इसको संतोर गढ़ के नाम से भी जाना जाता है। इसी वजह से हर शनिवार को हजारो की संख्या में भक्त माता संतोर और उनके भाई के दर्शन करने आते है,बताया जाता है जो भी भाई आपकी बहन के प्रति कोई मनोकामना मांगता है और बहन भाई के लिए मांगती है तो उसकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है इस कारण यह मंदिर बहुत खास और भाई बहन के लिए बहुत पवित्र स्थान माना जाता है जिसके दर्शन करने हेतु दूर-दूर से श्रद्धालु आते है इस मंदिर में आप वैसे साल में कभी भी आ सकते है लेकिन मानसून के दौरान थोड़ी सावधानी बरतनी पड सकती है यहाँ पहंचने के लिए आपको देहरादून आना पड़ेगा देहरादून रेलवे स्टेशन से मात्र 17 किलोमीटर की दुरी पर स्थित व जॉलीग्रांट एयरपोर्ट से लगभग 44 की मी दुरी पर है इन स्टेशन पर पहुँच कर आपको जाने के लिए टैक्सी कार की सुविधा भी उपलब्ध हो जाएगी एक यहाँ पहुंचने के बाद आपको एक अलग ही अनुभव होगा क्योंकि यह मंदिर अकेला ऐसा मंदिर है देहरादून का जो सबसे ऊँची छोटी पर स्थित है अगस्त के महीने में यहाँ से बादल आपको निचे दिखाई देंगे और चारो तरफ शांति व हरियाली ही हरियाली जिससे आप दृश्ये देख कर मंत्र मुग्द हो जायेंगे और यह जगह यात्री की पसंदीदा जगहों में से एक है