पंच प्रयागो में से एक रुद्रप्रयाग एक प्राचीन पवित्र स्थल है, जो की भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित है। इसकी दूरी राजधानी देहरादून से 174 किमी व दिल्ली से 392 किमी की है, जहाँ यात्री सड़क मार्ग का उपयोग करके बस व टैक्सी की सहायता से आ सकते है। अलकनंदा और मन्दाकिनी नदी के संगम पर स्थित इस शहर की खूबसूरती देखते ही बनती है, जिसके चारो तरफ आपको कई झील के साथ बर्फीले ग्लेशियर देखने को मिल जाएंगे। कहते है की रुद्रप्रयाग को इसका नाम भगवान शिव के रूद्र अवतार से प्राप्त हुआ।
पौराणिक कथा अनुसार नारद ऋषि ने भगवान शिव से संगीत में महारत हासिल करनी चाही। इसके लिए उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप करना शुरू कर दिया। उनके इस तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपने रूद्र अवतार में दर्शन दिए और उन्हें संगीत का ज्ञान प्रदान किया। उनके इस रूद्र अवतार के चलते जिले को रुद्रप्रयाग के नाम से पहचाने जाने लगा। जिस शिला पर विराजमान होकर नारद ऋषि ने तप किया था उस शिला का नारद शिला के रूप में पहचाने जाने लगा।
रुद्रप्रयाग को चार धाम का द्वार भी कहा जाता है, जहाँ से यात्री उत्तराखंड के छोटा चार धामों में से प्रसिद्ध बद्रीनाथ व केदारनाथ धाम को प्रस्थान कर सकते है, जो क्रमशः 150 किमी व 50 किमी की दूरी पर स्थित है। वैसे तो इस जिले में कई प्राचीन और पौराणिक मान्यता को समेटे सिद्ध पीठ और मंदिर है लेकिन उनमे से मुख्य रूप से कार्तिक स्वामी, कोटेश्वर महादेव, सिद्धपीठ कालीमठ, त्रियुगीनारायण, मद्महेश्वर और विश्व की सबसे ऊंचाई पर स्थित भोलेनाथ का प्रसिद्ध तुंगनाथ मंदिर अधिक प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष काई संख्या में भक्त इन मंदिरो में आकर आशीर्वाद प्राप्त करते है। वैसे तो इस जिले में कई पर्यटक स्थल है जो पर्यटकों को अपनी खूबसूरती से लुभाते है लेकिन उन सबमे सबसे अधिक एहमियत चोपता की रही है।
चोपता के दूर तक फैले घास के मैदान और यहाँ से नजर आने वाली हिमालय की ऊँची पर्वत श्रृंखला पर्यटकों को आकर्षित करती है। इसकी खूबसूरती के चलते ही इसे उत्तराखंड के मिनी स्विट्ज़रलैंड से भी पहचाना जाता है। केदारनाथ में कपाट बंद होने के पश्चात केदार बाबा की डोली को रुद्रप्रयाग के उखीमठ स्थित ओम्कारेश्वर मंदिर में लायी जाती है। विद्वानों द्वारा बताया जाता है की महाभारत के युद्ध पश्चात जब पांडव अपने भाइयो और गुरु की हत्या से व्यथित थे, तो अपने पापो के प्रायश्चित हेतु शिव से मिलने वह इसी स्थान पर आए थे।
अपनी परंपरा और संस्कृतक धरोहर को सजोने का प्रयास यहाँ होने वाली पांडव लीला में देखा जा सकता है। रुद्रप्रयाग के प्रत्येक क्षेत्र में इस लीला को बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है, जिसमे काफी संख्या में गांव के लोग शामिल होते है। इसके अतिरिक्त जिले में हरियाली देवी मंदिर और मद्महेश्वर मंदिर में लगने वाला मेला भी बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। इन मेले और अन्य पारम्परिक त्यौहार में ग्रामीण वासी अपनी पारम्परिक वेशभूषा धारण करके अपनी संस्कृति की झलक दिखते है। दो लाख से अधिक की जनसँख्या वाले क्षेत्र की अर्थव्यवस्था मुख्यता पर्यटन और खेती पर निर्भर है। क्षेत्र के 94 प्रतिशत से अधिक लोगो की प्राथमिक भाषा गढ़वाली है जबकि अन्य हिंदी भाषी है।
अन्य जिलों की ही तरह रुद्रप्रयाग के युवाओ को भारतीय सेना से काफी प्रेम है, इसी वजह से आपको इस जिले से काफी संख्या में युवा सेना में दिख जाएंगे। वर्ष 1997 के सितम्बर माह में अस्तित्व में आए रुद्रप्रयाग का मुख्य भाग चमोली, टिहरी, और पौड़ी जिले से लिया गया है। जिले की सिमा प्रमुख रूप से उत्तर में उत्तरकाशी, पूर्व में चमोली, पश्चिम में टिहरी और दक्षिण में पौडी से लगती हैं।